मस्त गजाननजी !
( तर्ज - यह प्रेम सदा भरपूर रहे )
आशिक हे मस्त गजाननजी !
मन भाये है माशुक के भी ।
ना भेद रहा था दोनों में ,
माशुक के भी
आशक के भी || टेक ||
शेगांव निवासा था उनका ,
लोगोंके कहे कहलाने को ।
पर थी सब दुनिया ही उनकी ,
थे बादशहा सब जगके भी ॥१ ॥
राजे - महाराजे कदमों में
पड़ते थे पैर छुवानेको ।
बस खास रंग , रंग में थे वो ,
किसकी ना पर्वा रखते भी ॥२ ॥
जो लब्ज निकाले वाणी से ,
पत्थर की रेख सही होवे ।
तुकड्या कहे संतोंकी यौँ ही ,
लीला कहते सच्चे भी ॥३ ॥
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